Dec 27, 2009

लकीरों से उतर भी जायेगा...!


आदाब.....

एक ताज़ा ग़ज़ल बहर-ए-रमाल मुसद्दस महजूफ मे आपकी नज़र कर रहा हूँ... जैसा लगे ज़ाहिर कर दीजियेगा...ज्यादा कहा नहीं जाता...

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बहर:- रमाल मुसद्दस महजूफ (Faa-i -laa-tun Faa-i-laa -tun Faa-i-lun)(2122 2122 212 – In Digit)
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टूट कर रिश्ता बिखर भी जायेगा...
रोयेगा ये बस जिधर भी जायेगा...

खोखले चेहरे पे काज़िब सी हंसी  ...
अब तो मुझसे ये जौहर भी जाएगा..


मिट न पायेंगे निशां ये होंठों से ...
रूप तेरा हाँ निखर भी जायेगा...

जब गली मे तेरी होगी रोशनी... 
घर कोई तब जल इधर भी जायेगा  

जिस्म को होने दो जल के राख अब...
फिर तड़पता ये जिगर भी जाएगा..

है अभी अहसास जीने का मुझे..
जल्द ही बन्दा गुज़र भी जाएगा...

और... !

था 'सिफर' तेरी हतेली की हिना ...
जो लकीरों से उतर भी जायेगा,...

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कुनाल (सिफर) :- २८-१२-२००९

Dec 17, 2009

कागज़ पे बिखर के मैं अंगार हो जाता हूँ....!


आदाब ,

सभी शायरी के रहनुमाओं को मेरा ... ये जो ग़ज़ल मैं आपके रू-बा-रू कर रहा हूँ ... इस ग़ज़ल का बहर हजाज़ मख्फूफ़ महजूफ रहता ... पर एक तक्ता ज्यादा रहा .. तो कोई तकनीकी बहर नहीं बनती ....

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बहर:- {2211 2211 2211 222 (गिनती मे}
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दो जाम होने पर मैं समझदार हो जाता हूँ ..
तब और नशे का मैं तलबगार हो जाता हूँ ...

वो मुझे न संभलने देगा, ये सोच कर ही अब ...
खुद के लिए खुद का ही मददगार हो जाता हूँ ...

ठोकर लगेगी मुझे बड़ी, मैं जान गया हमदम...
ग़म का तीर बन सीने के उस पार हो जाता हूँ ...

हर सांस से लिख दूँ मैं तेरे नाम फ़साने बस ...
कागज़ पे बिखर के मैं अंगार हो जाता हूँ...

तुम रोते हो हँसते हो मुझे याद बना के ही ...
हूँ खास कभी मैं, कभी बेकार हो जाता हूँ ..

आसान नहीं है यूँ मोहब्बत मे 'सिफर' होना...
होके मैं फ़ना इसमें ही, गिरफ्तार हो जाता हूँ ..

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कुनाल (सिफर) :- 17-12-2009
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Dec 2, 2009

आज ही जन्मे थे आज ही जायेंगे...!

आदाब

आज एक ताज़ा ग़ज़ल अपनी जानिब से बहर-ए-मुतदारिक सालिम मे आपकी नज़र कर रहा हूँ.. मुआफी का तलबगार भी हूँ उन दोस्तों से जिनके दिल को ज़रा भी ठेस पहुंचे.. क्यूंकि आज मेरे जन्मदिन पे मुझे ऐसा लिखना नहीं चाहिए था...जो जिस तरह से दिल मे आया लिख दिया मैंने..

बहर :- मुतदारिक सालिम (Faa-i-lun Faa-i-lun Faa-i-lun Faa-i-lun ) (212 212 212 212 - in digit)

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आज ही जन्मे थे आज ही जायेंगे ...
मौत के बाद फिर जिन्दगी पायेंगे...

जो देखेंगे तमाशा मेरी रूह का...
बाद मेरे तिही* हर गली पायेंगे...

*तिही - खाली


आरज़ू थी पीछे, पीछे ही रह गयी...
मिटटी मे खुशबू जिसकी, दबी पायेंगे,...

इश्क किस रंग से हो गया ये हमें ...
इसमें ही अब लिपट के, कहीं जायेंगे...

रंज ना था ख़ुशी ना थी, आलम ऐसा ...!
मुर्दे भी बस्ती से रुखसती चाहेंगे..

पर ...!

हर मु-फक्किर* की सूरत "सिफर" तेरी है.. ,,..
तेरे नाम-ओ-निशाँ यूँ नहीं जायेंगे..

*मु-फक्किर - सोचने वाला


है फिजाओं मे, तेरे कलामों की बू... !
अश्क उनके तड़प कर ज़मीं चाहेंगे ..

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कुनाल (सिफर) :- ३-१२-२००९

Nov 19, 2009

हाँ तुम वही तो हो...!

एक नज़्म जैसा है .. बहर की तकनीक से बोहत दूर.. बस सीधे ख्याल .....!

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तुम वो ही तो हो...

जो एक रोज़ यूँ ही
मिल गयी थी कहीं...
अचानक से नज़रें
बस खुल गयी थी वहीँ...

जो एक हवा के जैसे
साँसों से टकराई
और धुल से मिल कर..
तस्वीर सी उभर आई..

तुम वो ही तो हो...

जो एक सफ़र मे
साथी सी लगी मुझे...
जाने कितने बरसों की
जागी सी लगी मुझे...

की सपनो मैं दुनिया...
जो बनाती चली गयी,,
एक सबक नया हरदिन
जो सिखाती चली गयी,,

तुम वो ही तो हो...

जिसने मुझे गिराया था
हर बार उठाने के लिए...
बिगाड़ा था मेरी रातों को
मेरे दिन बनाने के लिए...

की तुमसे ही तो सीखा है..
खुदा भी कोई चीज़ है .
जो हमे बच्चा बना पाले
जिसके लिए हम अज़ीज़ है ..

तुम वो ही तो हो...

जो थक कर कभी मायूस ,...
कोने मैं बैठ जाती हो..
की तुम्हे है शिकवा मुझसे..
ये कहाँ तुम कभी बताती हो..

की तेरे आंसू भी तो...
कभी बहते देखे है मैंने...
चमकते हुए रंग वफ़ा के..
भी हज़ारों देखे है मैंने...

तुम वो ही तो हो...

जो मुहं फेर कर भी..
सोचती है मेरे ख्याल को..
ख़ामोशी का तोहफा देती है ..
मेरे हर उलझे सवाल को ...

जल जाऊंगा मे एक आग मे..
ये सोच सब कह भी देती हो..
और कितने तीर मेरी जुबान के
चुप चाप सह भी लेती हो..

तुम वो ही तो हो...

जिसे एक बार भी तो...
मैंने देखा नहीं है...
जानता हूँ ये भी की तुमसे
खूबसूरत कोई चेहरा नहीं है...

की बादलों के पार कहीं..
मेरी पहुँच से दूर हो तुम..
मेरी सांसे है तुमसे ही...
मेरे जिस्म का नूर हो तुम,..

तुम वो ही तो हो...

जो एक रोज़ चली जाओगी..
मेरे वजूद की कहानी को लेकर
ये बढती हुई उम्र और ,..
ये घटती हुई जवानी को लेकर...

की तुम भी आत्मा भी तो..
मुझमे कहीं रह नहीं सकती..
साँसों की धारा भी ये 'सिफ़र'..
जिस्म मे और बह नहीं सकती...

तुम वो ही तो हो...

पर तुम्हारा नहीं कही,,
जिन्दगी का जिक्र था ये सारा...
वो बात और है की ..
तुम ही मेरी जिन्दगी तो हो

हाँ तुम वही तो हो...

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कुनाल (सिफ़र)


Nov 2, 2009

बस गया वो आखिरी सदमा नज़र मे...!

आदाब अर्ज़ है...

एक ताज़ा ग़ज़ल को रमाल बहर मे अपनी जानिब से अदा कर रहा हूँ,.. . शुरुवात अपनी इल्लत से मजबूर ख्याल से ही करूँगा...

Behar:- Ramaal (2122 2122 2122)(GalGaGa GalGaGa GalGaGa)
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ख्याल :-
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यादों ने फिर आज मुझे घेरा है ... उस कोने मे मेरा बसेरा है... जहाँ तू आया नहीं कभी .. वहां हर ख्याल तेरा है... ए तन्हाई न आहों को मेरी इतनी जगह दो.. ये बस जाए यही इतनी पनाह दो.. थोडी देर और पास मेरे बैठो ... की दूर अभी सवेरा है.. हाँ उस कमरे के कोने पे मेरा बसेरा है .. यादों ने फिर आज मुझको घेरा है ...

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ग़ज़ल :-
°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o

चल रहा है यादों का मजमा नज़र मे..
आंसुओं का हौले से थमना नज़र मे ..

आखिर-ए-शब् हो, ये अनवार-ए-इलाही..
आफताब-ए-ग़म फ़क़त, खिलना नज़र मे...

इन खतों से है गिरे, अरमां मेरे ही...
बेरहम इनका यूँ फिर जलना नज़र मे ..

वो खुदा भी है खफा मुझसे सितमगर ..
बेवफा का पढ़ लिया कलमा नज़र मे..

पी रहा हूँ यार, जाम-ए-ग़म मे कब से...
लाज़मी है कुछ नशा मिलना नज़र मे ..

गर ख़ुशी मेरी, सुकून देती 'सिफर'*बस..
देख पल पल, ये मेरा मरना नज़र मे ..

अलविदा कहना तेरा बोसा* मुझे कर...
बस गया वो आखिरी सदमा नज़र मे..

ढल गया है यादों का मजमा नज़र मे..
आंसुओं का धीरे से मरना नज़र मे .

°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o

कुनाल (सिफर) :- ०३-११-२००९
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* आखिर-ए-शब् ============== रात का अंत
* अनवार-ए-इलाही ============ इस्वरीय रौशनी,
* आफताब-ए-ग़म ============= ग़म का सूरज
* फ़क़त ==================== सिर्फ
* जाम-ए-ग़म ================ ग़म का प्याला
* सिफर ==================== शुन्य
* बोसा ===================== चूमना

Nov 1, 2009

आतंक कि शाम मांगता है ....!

कभी मस्जिद का तो कभी मंदिर का नाम मांगता है..
कागजी माया के लिए मुल्ला रहीम, पंडित राम मांगता है...

जीवन का हर पल मर के काटती है वो गरीब माँ....
भूक से बिलखता बच्चा रोटी जब सरे आम मांगता है ...

पड़ते है छाले चलते चलते, नौजवान क़दमों मैं..
कैसे हाथ जोड़ बेरोजगार सेठों से काम मांगता है...

कभी नहीं आते अपने गर्दिश मैं साथ देने यहाँ किसीका ...
बिन सोचे हालत-ए-रूह, हर रिश्ता अपना दाम मांगता है...

भीगे कच्ची राह पे तकती है वो सुहागन रास्ता जिसका..
उसका शोहर सरहद पे मिट, आतंक कि शाम मांगता है ...

थक जाता है वो भूडा बाप बेटी कि शादी मैं बिकते बिकते,
बेखौफ खुदा से ससुराल उसका, दहेज़ तमाम मांगता है...

दिल कि लगी को दिल्लगी बना के हंसते है तुमपे सिफर..
इश्क मैं लुटा आशिक, मयकदे मैं जाम मांगता है..

कहाँ तक देखे कोई जहाँ के गुनाहों को पर्दा डाल,
हमारा दिल ऊब चूका जो बस आपसे सलाम मांगता है...

क्यूँ मुल्ला रहीम पंडित राम मांगता है...
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कुनाल (सिफर)
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Oct 20, 2009

ग़ज़ल:- गली आखिरी....!

शुरुवाती ख्याल के मुत्तालिक , एक मुक्तारिब बहर मैं ग़ज़ल अपनी जानिब से पेश कर रहा हूँ.. . और बस अपने दिल को यहाँ रख रहा हूँ ..


Behar hai :- mutqarib (lGaGa lGaga lGaGa lGaGa)---(In Digit:-122 122 122 122)

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ख्याल
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चलने से पहले कुछ सोचा था मैंने.... घाव हर दिल का खरोचा था मैंने... कि आखिरी सफ़र कि अब बारी है... और कुछ कांधो पे अपनी सवारी है, ... आँखें सबकी नम है,.. मेरी खुश्क सही,... हर एक फूल सीने पे बे-इन्तेहा भारी है...! काजिब हर रिश्ते कि याद को... टूटे हर अरमान के कांच को.. ज़मीन-ए-दिल पे अपने अश्कों से पोंछा था मैंने... हाँ..! चलने से पहले कुछ सोचा था मैंने ...

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ग़ज़ल
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गली आखिरी है नगर आखिरी है..
रुकी जिन्दगी का सफ़र आखिरी है..

कभी न कमाया है पलकों तले जो,,
उन अश्कों का रुख पर बसर आखिरी है ...

कहीं वो छुपे हैं इसी काफिले मैं...
मुझे देखती जो, नज़र आखिरी है ..

मेरी बेबसी थी अकेला ही चलना..
खलाओं भरी ये डगर आखिरी है..

तू रोया बड़ा है मुझे साथ पाकर..
न ग़म कर घडी ये अगर आखिरी है ..

कि खामोश रहना मेरा भीड़ भर मैं..
ये ही आज, अर्ज़-ए-हुनर आखिरी है ..

'सिफर' ही है गर हासिल-ए-दम मेरी जाँ...
खुदा की पनाह ही, शिखर आखिरी है..

हाँ ...!

हंसी आखिरी है जिगर आखिरी है..
रुकी जिन्दगी का सफ़र आखिरी है..
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कुनाल (सिफर) :- ०५-१०-२००९
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Oct 19, 2009

और वो वहम बताते रहे

हम अलग सही आज के दौर मे... पर कैसे भूलूं मैं वो राहें... चलते थे साथ कदम, चलती थी साँसें ... बताओ क्या बदला है इस जिन्दगी मे.. पहले जगते थे तेरे प्यार मे.. अब बस इंतज़ार मैं कटती है रातें,,, मिल लेता था तुझसे तब रू-बा-रू, और अब तस्वीर से होती है बातें... तभी मेरा दिल तेरे लिए आज भी धड़कता है.. तेरे नाम पे न जाने कितना तड़पता है.. कहता है जब कोई तुझे बेवफा, रोटी है आँखें, हाँ सच रोती है आँखें...

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बेवफा न वो न मैं, हम अपने करम निभाते रहे...
मैं सहता रहा सितम सारे, और वो सितम ढाते रहे...

किस बात की कहानी कहूँ, किस बात के फ़साने सुनाऊं ..
लिखता रहा नाम जो दिल पे, वो दिल से सनम मिटाते रहे...

इस गली फिर उस गली मैं, पैरों पे जुल्म करते चला..
कहता गया उन्हें मैं अपना, वो गैरों को अहम् बताते रहे..

नज़रों मैं बचे एहसास उसकी निशानी बना संभाले..
मैं रोया ग़म-ए-जुदाई पे, वो नूर-ए-चश्म* बहाते रहे...

*आँखों की चमक


प्यासी राहों से क्या पूछूँ पता दर-ए-मुहब्बत का..
रहे सँभालते काँटों पे, वो बेरहम बिछाते रहे..

आसरा उनका कहाँ खुदा भी, जो किये 'सच्चा_प्यार' यहाँ...
हम मिट गए उनकी चाहत मे, और वो वहम बताते रहे...

हाँ बेवफा वो कैसे, उसने बेवफाई से वफ़ा तो की यार..
इल्लत* मेरी भी खूब कहो, वफ़ा उनसे हरदम निभाते रहे...

मैं सहता रहा सितम सारे, और वो सितम ढाते रहे...
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कुनाल (सिफर) :- ३०-८-२००६

Oct 17, 2009

दिवाली मे घर जला रहें है ...!

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अँधेरे को अँधेरा रहने दो... डूबा हुआ सवेरा रहने दो... मुझे आदत है सन्नाटे की ... रिश्तों मे हमेशा घाटे की.. ज़रुरत नहीं मुझे रोशनी की... बस हटा दो कोई लकीरें मेरे माथे की ... चाहे खलाओं मे मेरा बसेरा रहने दो.. जो मेरा है उसे मेरा रहने दो .. डूबा हुआ सवेरा रहने दो.. अँधेरे को अँधेरा रहने दो...

°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-

रोशनी से रोशनी का त्यौहार मना रहे है ...
जाने किसका घर है जो यार जला रहे हैं..

तमाशा है भीड़ का शहर की गलियों मैं ...
वीरानियों से घर अपना सरकार सजा रहे है...

ख़ुशी पसर गयी है मीठे के डब्बों मैं..
रुख पे अपने अश्क, हर बार बहा रहे है..

क्यूँ दे रहे हो बधाई, उनको इसकी तलब नहीं...
जेब बंद मुफलिसी* से, वो प्यार निभा रहे है...

* ग़रीबी


कुछ गिरे है टुकड़े आतिशी* मेरे आँगन मे ...
तड़प के अरमान हम, आखिरकार उड़ा रहे हैं..

* शोले


किस्सा-ए-बेवफाई है आशिकों के लब पे यहाँ...
सुरूर-ए-जाम दोस्तों से तकरार करा रहे हैं..

और...

'सिफर' हो गए धमाके, उनके आसमान मैं...
पर महफिल मैं आग, मेरे आशार* लगा रहे है..

*शायरी, अल्फाज़

रोशनी से दिवाली का त्यौहार मना रहे है,..
अपना ही घर है हम जो यार जला रहे हैं...

°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-°-o-

कुनाल (सिफर):- १७ अक्टूबर २००९

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Oct 16, 2009

किस्मत जो बदल न पायेंगे...!





तुम हकीकत हो या ख्वाब, .. पर तुम्हे सच मान के जिंदगी जीता हूँ मैं ... की मेरे अरमानों मैं तुम्हारा अक्स है कहीं न कहीं ... जिसे मे देख सकता हूँ... छु सकता हूँ... पर पल भर मे सिमट जाता है वो कहीं... दिल रोज़ जी उठ-ता है और रोज़.........!

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बहक ना जाना की हम संभल ना पाएंगे..
तेरे आगोश मे आ के फिर निकल ना पाएंगे...

इस रात मे कर लेना दिल की हसरतें पूरी ...
गुज़र गया ये पल, फिर पिघल ना पायेंगे..

मेरी आँखों मे बह रहे मेरे जज़्बात-ए-दिल..
पढ़ लो इन्हें ज़रा ये फिर मचल ना पाएंगे ...

तेरे इंतज़ार मे तन्हाई को महफिल बताते कबसे...
रंगीनियों से अरमान अब बेहल ना पायेंगे...

अपने हश्र की फिक्र क्या करूँ मेरे खुदा...
उस कातिल को दे दी किस्मत जो बदल न पायेंगे...

जानता हूँ यही है मंजिल तेरी सच्चा_प्यार...
पर तेरी जुदाई का ज़हर हम निगल ना पायेंगे

हाँ हम संभल न पाएंगे तेरे पहलु से निकल ना पायेंगे...

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कुनाल (सिफर) ११ सितम्बर २००५...



Oct 14, 2009

'ए' हाथ छुडाने वाले....!

आज बस यूँ ही मन किया की मैं भी अपना एक आशियाना बनों .. तो बस इस तरफ चला आया... और देख मेरे खुदा ... अपने आपको मैंने खोदा है तो क्या पाया है... वही जो बस उस वक़्त जेहन मैं आया .. जब साँसों ने चलने से इनकार कर दिया था.. पर न जाने क्यूँ.. तब भी एतबार था उस अजनबी पे ... जो कभी अपना बना . और आज भी एतबार है उस पे जो अपना होके फिर अजनबी बन गया,.. मेरे खुदा बस यही इल्तेजा है मेरी .. मुझे मुझमे मरने दो ... और लफ्जों मैं ढलने दो...

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मेरा होकर भी खुद को गैर का बताने वाले...
दूर कैसे जाओगे मुझसे 'ए' हाथ छुडाने वाले..

कोई हमदम न मिलेगा तुमको हमसा यहाँ...
हम तो मिटे शौक से, अब मिलेंगे मिटाने वाले..!

किस बात का गुनाहगार बना दिया इस जान को...
नफरत यूँ मिली हमें, जुदा हुए मनाने वाले...!

हमें नहीं ग़म, न शिकायत है कोई इस सजा से ...
खुदा जाने इनमे कितने है, हम दिन बिताने वाले...!

पर है एक वादा तुझसे भी ए सितमगर हसीं
अश्क गिरेंगे तुम्हारे भी, भले हो वो दिखाने वाले...!

और..

खुश कैसे रहेगा तू, गर था तेरा 'सच्चा प्यार'..
तेरा दिल भी कटेगा, मुझ पे खंजर चलाने वाले

और सच कहो दूर कैसे जाओगे, ए हाथ छुडाने वाले...!

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कुनाल (सिफर) :- १९ जुलाई २००५