Aug 19, 2010

इश्क करता है इंतज़ार आजा..

एक नया गीत आपकी नज़र है ... इसका वजन "तुमको देखा तो ये ख्याल आया" जो जगजीत साहब कि मशहूर ग़ज़ल है वही है ....

बह'र:- काफीफ़ मुसद्दस मखबून महजूफ मकतू  (2122-1212-22 - अंको मे )


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इश्क करता है इंतज़ार आजा...
मुझको भी तुझसे ही है प्यार आजा..

रुकते है चलते है कदम तन्हा ...
जिंदगी का सफ़र हुआ तन्हा ...
रहते पल पल हैं बेकरार आजा ...

इश्क करता है इंतज़ार आजा ...

ख्वाबों को राहों मे बिछा दूंगा
पलकों मे तुझको यूँ छुपा लूँगा
तुझको देखूं मैं बेशुमार आजा ...

इश्क करता है इंतज़ार आजा..

अब तो पल पल ही मेरी जाँ जाए ..
दूरियां भी न अब सही जाए ..
जी लूँ करके तेरा दीदार आजा

इश्क करता है इंतज़ार आजा ...

इस मोहब्बत की तू कहानी है ...
गर दिवाना मैं तू दिवानी है..
जुल्फ तेरी दूँ मैं संवार आजा..

इश्क करता है इंतज़ार आजा...

जाम खाली है दिल भी खाली है
आज किस्मत भी आजमा ली है ...
बन के महफ़िल मे तू बहार आजा...

इश्क करता है इंतज़ार आजा..

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कुनाल (सिफर) 

Aug 6, 2010

किस्मत भी कहानी है....!

आदाब...

एक नयी ग़ज़ल बज़्म के नज़र कर रहा हूँ , बहर-ए-हजाज मुसम्मन अखरब मे उम्मीद है आप अपनी आरा से ज़रूर नवाजेंगे... इसी बहर मैं एक मशहूर गीत है,.. साथ गुनगुना के देखिएगा शायद अच्छा लगे...

टूटे हुए ख्वाबों ने, हमको ये सिखाया है...
दिल ने जिसे पाया था, आँखों ने गंवाया है ...

बहर गिनती मे :- 221 1222 221 1222

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क्या इश्क की हस्ती है, क्यूँ आँखें बरसती है ...
ये शाम भी तुमसे ही, मिलने को तरसती है...

अब टूट चुके मेरे, अरमां वो मोहब्बत के,..
उम्मीद न महफ़िल से, तन्हाई भी डसती है ,...

टकरा के निकल जाते, हम दर्द की राहों से ...
पर बीच मे आती क्यूँ, यादों की वो बस्ती है ...

वो बात ही करते है, बस चाँद सितारों की..
इस इश्क के सौदे मे, ये जान भी सस्ती है,..

हासिल थे 'सिफ़र' हमको, अपनों से मिले रिश्ते,...
साहिल पे जो अब डूबी, वो प्यार की कश्ती है ...

वादे तो किये थे हम, अब साथ सदा होंगे..
किस्मत भी कहानी है, हर मोड़ पे फंसती है...

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कुनाल (सिफ़र) :- 07-08-2010
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Jul 31, 2010

आग इधर है जो, उधर कैसे हो ...!

आदाब,

एक ताज़ा ग़ज़ल आप सबकी नज़र कर रहा हूँ... उम्मीद है आप अपनी आरा से ज़रूर नवाजेंगे...

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बहर:- सरी मुसद्दस मतवी मक्सूफ़ ( 2112 2112 212 )
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झूठी दुआओं मे असर कैसे हो ...
ख्वाबों की दुनिया मे बसर कैसे हो ...

बंट गयी टुकड़ों मे सनम जिंदगी...
अब कोई भी अर्ज़-ए-हुनर कैसे हो ..

सोच सियासत से भरी है यहाँ
आग इधर है जो, उधर कैसे हो ....

उनको है डर ये, जी उठूँगा मैं फिर ...
पूछ ले वो मुझसे, अगर कैसे हो ..

मेरी तरह रोते है हमदम मेरे ...
उजली हुई उनकी, नज़र कैसे हो ...

ख्यालों मे भी ख्याल यही रह गया ..
जिस्म मे ये साँसें 'सिफ़र' कैसे हो ..

दोस्त भी दुश्मन भी पीछे चल पड़े....
इससे हंसी कोई सफ़र कैसे हो ...

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कुनाल (सिफ़र) :- ०१-०८-२०१०
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Jul 5, 2010

कदम फिसलते होंगे...!

आदाब,

एक ताज़ा ग़ज़ल महफ़िल की नज़र कर रहा हूँ .. आप सब अपने इज़हार-ए-ख्याल ज़रूर अता फरमाएंगे उम्मीद रहेगी...

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बहर:- हज़ज मुसद्दस अखरब मक्बूज़ महजूफ (221 1212 122 - गिनती मे)
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आँखों मे नमी सी रखते होंगे..
कुछ रस्तों को जब भी तकते होंगे..

लहरों मे कमी सी लगती होगी...
साहिल पे कदम फिसलते होंगे...

यादों की मज़ार दिल मे लेकर ...
गैरों से गले वो मिलते होंगे ...

दीदार किये जमाने गुज़रे...
अब सोच के दम निकलते होंगे ..

रब्बा मेरे तू सुकूँ दे उनको ..
अरमां कई दिल मे जलते होंगे...

घटती हुई उम्र कह रही है..
मौसम तेज़ी से बदलते होंगे..

उम्मीद है आखिरी सफ़र मे ...
वो साथ 'सिफ़र' के चलते होंगे ..

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कुनाल (सिफ़र) :- 06-07-2010
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Jun 13, 2010

जिंदगी से दूर कर दिया...!

आदाब,

एक ताज़ा ग़ज़ल आप सबकी नज़र कर रहा हूँ... उम्मीद है आप अपनी आरा से ज़रूर नवाजेंगे...

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बहर:- मुज़ारी मुसम्मन अखरब मख्फूफ़ महज़ूफ़ (2 2 1   2 1 2 1   1 2 2 1    2 1 2 )
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मजबूरी ने ऐसे हमें मजबूर कर दिया...
इस जिंदगी मे, जिंदगी से दूर कर दिया..

पलके कमाल करती है उसके जमाल पर..
रो रो के हमने चेहरे को बेनूर कर दिया...

कहते थे चाँद तो कभी कहते खुदा भी थे..
हाँ इश्क ने ही हुस्न को मग़रूर कर दिया...

कितने हुए तमाम मोहब्बत की राह मे..
हमको तो इसके ग़म ने भी मसरूर* कर दिया...

शिद्दत से हमपे उसने किये थे करम बोहत
उसने सितम भी हमपे ही भरपूर कर दिया...

वो दूर जाके अपनी ही किस्मत बनाएगा...
इस दर्द ने 'सिफर' को भी मशहूर कर दिया..


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कुनाल (सिफ़र) :- १४-०६-२०१०
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May 31, 2010

चला हूँ मैं, चले हो तुम धीरे धीरे ....!

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बहर: हजाज़ सालिम ( १२२२ १२२२ १२२२)
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चला हूँ मैं, चले हो तुम धीरे धीरे ..
नज़र भी होगी, यूँ ही नम धीरे धीरे...

दीवाने गर है तन्हाई के दोनों हम,
होगा महसूस दर्द-ओ-ग़म धीरे धीरे...

ठहर के जाम होंटों से लगाना तुम ...
चडेगा सर नशा, जानम धीरे धीरे ...

अधुरा इश्क तेरा तोहफा मुझको...
ख़ुशी से जा मिला मातम धीरे धीरे...

कहानी फिर कोई ले मोड़ मुश्किल सा ...
'सिफ़र' ये निकले मेरा दम धीरे धीरे ...

और ...

नहीं ग़मगीन, गर है जिंदगी ताविल...
ग़म-ए-फुरक़त भी होगा कम धीरे धीरे...

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कुनाल (सिफ़र) :- ३१-०५-२०१०

May 14, 2010

यूँ ही कलम रोई बस...!

आदाब,

एक ताज़ा ग़ज़ल बहर-ए-मुजारी मुसम्मन अखरब मे आप सबकी नज़र कर रहा हूँ ... ये बहर के हर मिश्रे मे एक अनिवार्य रुकाव (//)होता है ... उम्मीद है आप अपनी आरा से नवाजेंगे..

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बहर :- मुजारी मुसम्मन अखरब ( 221 2122 // 221 2122 (In Digit)
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यूँ ही कलम रोई बस, यूँ ही कलाम रोया...
हालत पे मेरी सारा, आलम तमाम रोया..

होता नहीं नशा क्यूँ, साकी जो पूछ बैठा..
देके बोसा* होंटो को, महफ़िल मे जाम रोया...

यूँ छाई थी बेचैनी, हर बात पर हैरां था..
फिर अपनी ही मैं नींदे, करके हराम रोया..

आया नहीं जो जाकर, काज़िब* से रिश्ते पाकर..
मैं बरसों बाद उसका, पढके सलाम रोया..

दस्तूर है जमाने, अब ज़ख्मों का तमाशा...
मजबूरी का 'सिफ़र' भी, बन के गुलाम रोया..

और...

टूटा हुआ सितारा, क्या मांगते खुदा से ..
तेरा ही दर पे उसके, लेके मैं नाम रोया..

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कुनाल (सिफ़र) :- ०६-०५-2
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*बोसा ========= चूमना
*काज़िब ======== झूठा

Jan 19, 2010

पत्थरों से मारा है ...!



सलाम,
दिल के जज़्बात है ज्यूँ के त्यूं रख रहा हूँ ... बाकी आपकी इनायत...

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बहर:- हजज़ मुसम्मन अश्तर (212 1222 212 1222)
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नज़रों पे हुआ रोशन अश्कों का सितारा है...
क्या हसीन मंज़र है, मौत का नज़ारा है ...

गर्द* अब हटा दो उस कब्र से मेरे यारों...
नाम जाने कब से जिस पर, लिखा हमारा है

हो गया यकीं, अपनी भी शिकस्त का मुझको ..
डूबती सी कश्ती, उजड़ा हुआ किनारा है..

है गुमाँ ये काज़िब* अपनी अदाओं पे तुम को...
खुद से लड़ते लड़ते कोई थका है हारा है...

तोड देती है दम ये कहते कहते मोहब्बत...
मुफलिसी* मे होता, मुशकिल बड़ा गुज़ारा है ..

क्यूँ तलाशते हो इन गजलों मे बहर जिद से ..
जब 'सिफर' ने कागज़ पे बस लहू उतारा है...

और ...!

था सोचा कि होगी इज्ज़त से रुखसती अपनी...
जाने क्यूँ हमे सबने पत्थरों से मारा है ...

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कुनाल (सिफर) - 20-01-2010
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*गर्द ----- मिटटी
*काज़िब --- झूठा
*मुफलिसी - ग़रीबी

Jan 1, 2010

फर्क औकात का है....!

आदाब...

आज कल हाथ कुछ ज्यादा जुनूनी है ... एक और ताज़ा ग़ज़ल अपनी जानिब से बहर-ए-मुतकारिब सालिम मे आपकी नज़र कर रहा हूँ..
आप अपनी आरा से नवाजेंगे उम्मीद करता हूँ...

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बहर :- मुतकारिब मुसम्मन सालिम (Fa-uu-lun  Fa-uu-lun  Fa-uu-lun  Fa-uu-lun)(122  122  122  122 - In Digit)
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हैरां दिल है फिर जश्न किस बात का है ... 
जैसे ये जीवन बस इसी रात का है...

अजब शोर है राहों पे इस शहर की..
सोदा हो रहा जैसे जज़्बात का है...

है महफ़िल कहीं, कोई है गमजदा भी...
इधर से उधर, फर्क औकात का है..

गीली है ज़मीं अश्कों से आशिको के..
वो कहते है मौसम ये बरसात का है...

चला है जो अपनी ही बस्ती जलाने..
बे-बस शख्स, मुजरिम वो हालात का है...

उलझ जाते है देख कर आईना हम,...
निशाँ क्या ये रुख पर शुरुवात का है ....

'सिफर' साँसे है सीने मे टूटने को......
ये इंतज़ार बस इक मुलाक़ात का है..

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कुनाल (सिफर) :- ०२-०१-२०१०