Oct 17, 2009

दिवाली मे घर जला रहें है ...!

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अँधेरे को अँधेरा रहने दो... डूबा हुआ सवेरा रहने दो... मुझे आदत है सन्नाटे की ... रिश्तों मे हमेशा घाटे की.. ज़रुरत नहीं मुझे रोशनी की... बस हटा दो कोई लकीरें मेरे माथे की ... चाहे खलाओं मे मेरा बसेरा रहने दो.. जो मेरा है उसे मेरा रहने दो .. डूबा हुआ सवेरा रहने दो.. अँधेरे को अँधेरा रहने दो...

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रोशनी से रोशनी का त्यौहार मना रहे है ...
जाने किसका घर है जो यार जला रहे हैं..

तमाशा है भीड़ का शहर की गलियों मैं ...
वीरानियों से घर अपना सरकार सजा रहे है...

ख़ुशी पसर गयी है मीठे के डब्बों मैं..
रुख पे अपने अश्क, हर बार बहा रहे है..

क्यूँ दे रहे हो बधाई, उनको इसकी तलब नहीं...
जेब बंद मुफलिसी* से, वो प्यार निभा रहे है...

* ग़रीबी


कुछ गिरे है टुकड़े आतिशी* मेरे आँगन मे ...
तड़प के अरमान हम, आखिरकार उड़ा रहे हैं..

* शोले


किस्सा-ए-बेवफाई है आशिकों के लब पे यहाँ...
सुरूर-ए-जाम दोस्तों से तकरार करा रहे हैं..

और...

'सिफर' हो गए धमाके, उनके आसमान मैं...
पर महफिल मैं आग, मेरे आशार* लगा रहे है..

*शायरी, अल्फाज़

रोशनी से दिवाली का त्यौहार मना रहे है,..
अपना ही घर है हम जो यार जला रहे हैं...

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कुनाल (सिफर):- १७ अक्टूबर २००९

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