Jan 19, 2010

पत्थरों से मारा है ...!



सलाम,
दिल के जज़्बात है ज्यूँ के त्यूं रख रहा हूँ ... बाकी आपकी इनायत...

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बहर:- हजज़ मुसम्मन अश्तर (212 1222 212 1222)
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नज़रों पे हुआ रोशन अश्कों का सितारा है...
क्या हसीन मंज़र है, मौत का नज़ारा है ...

गर्द* अब हटा दो उस कब्र से मेरे यारों...
नाम जाने कब से जिस पर, लिखा हमारा है

हो गया यकीं, अपनी भी शिकस्त का मुझको ..
डूबती सी कश्ती, उजड़ा हुआ किनारा है..

है गुमाँ ये काज़िब* अपनी अदाओं पे तुम को...
खुद से लड़ते लड़ते कोई थका है हारा है...

तोड देती है दम ये कहते कहते मोहब्बत...
मुफलिसी* मे होता, मुशकिल बड़ा गुज़ारा है ..

क्यूँ तलाशते हो इन गजलों मे बहर जिद से ..
जब 'सिफर' ने कागज़ पे बस लहू उतारा है...

और ...!

था सोचा कि होगी इज्ज़त से रुखसती अपनी...
जाने क्यूँ हमे सबने पत्थरों से मारा है ...

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कुनाल (सिफर) - 20-01-2010
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*गर्द ----- मिटटी
*काज़िब --- झूठा
*मुफलिसी - ग़रीबी

Jan 1, 2010

फर्क औकात का है....!

आदाब...

आज कल हाथ कुछ ज्यादा जुनूनी है ... एक और ताज़ा ग़ज़ल अपनी जानिब से बहर-ए-मुतकारिब सालिम मे आपकी नज़र कर रहा हूँ..
आप अपनी आरा से नवाजेंगे उम्मीद करता हूँ...

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बहर :- मुतकारिब मुसम्मन सालिम (Fa-uu-lun  Fa-uu-lun  Fa-uu-lun  Fa-uu-lun)(122  122  122  122 - In Digit)
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हैरां दिल है फिर जश्न किस बात का है ... 
जैसे ये जीवन बस इसी रात का है...

अजब शोर है राहों पे इस शहर की..
सोदा हो रहा जैसे जज़्बात का है...

है महफ़िल कहीं, कोई है गमजदा भी...
इधर से उधर, फर्क औकात का है..

गीली है ज़मीं अश्कों से आशिको के..
वो कहते है मौसम ये बरसात का है...

चला है जो अपनी ही बस्ती जलाने..
बे-बस शख्स, मुजरिम वो हालात का है...

उलझ जाते है देख कर आईना हम,...
निशाँ क्या ये रुख पर शुरुवात का है ....

'सिफर' साँसे है सीने मे टूटने को......
ये इंतज़ार बस इक मुलाक़ात का है..

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कुनाल (सिफर) :- ०२-०१-२०१०