आदाब
आज एक ताज़ा ग़ज़ल अपनी जानिब से बहर-ए-मुतदारिक सालिम मे आपकी नज़र कर रहा हूँ.. मुआफी का तलबगार भी हूँ उन दोस्तों से जिनके दिल को ज़रा भी ठेस पहुंचे.. क्यूंकि आज मेरे जन्मदिन पे मुझे ऐसा लिखना नहीं चाहिए था...जो जिस तरह से दिल मे आया लिख दिया मैंने..
बहर :- मुतदारिक सालिम (Faa-i-lun Faa-i-lun Faa-i-lun Faa-i-lun ) (212 212 212 212 - in digit)
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आज ही जन्मे थे आज ही जायेंगे ...
मौत के बाद फिर जिन्दगी पायेंगे...
जो देखेंगे तमाशा मेरी रूह का...
बाद मेरे तिही* हर गली पायेंगे...
*तिही - खाली
आरज़ू थी पीछे, पीछे ही रह गयी...
मिटटी मे खुशबू जिसकी, दबी पायेंगे,...
इश्क किस रंग से हो गया ये हमें ...
इसमें ही अब लिपट के, कहीं जायेंगे...
रंज ना था ख़ुशी ना थी, आलम ऐसा ...!
मुर्दे भी बस्ती से रुखसती चाहेंगे..
पर ...!
हर मु-फक्किर* की सूरत "सिफर" तेरी है.. ,,..
तेरे नाम-ओ-निशाँ यूँ नहीं जायेंगे..
*मु-फक्किर - सोचने वाला
है फिजाओं मे, तेरे कलामों की बू... !
अश्क उनके तड़प कर ज़मीं चाहेंगे ..
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कुनाल (सिफर) :- ३-१२-२००९
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