Dec 17, 2009

कागज़ पे बिखर के मैं अंगार हो जाता हूँ....!


आदाब ,

सभी शायरी के रहनुमाओं को मेरा ... ये जो ग़ज़ल मैं आपके रू-बा-रू कर रहा हूँ ... इस ग़ज़ल का बहर हजाज़ मख्फूफ़ महजूफ रहता ... पर एक तक्ता ज्यादा रहा .. तो कोई तकनीकी बहर नहीं बनती ....

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बहर:- {2211 2211 2211 222 (गिनती मे}
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दो जाम होने पर मैं समझदार हो जाता हूँ ..
तब और नशे का मैं तलबगार हो जाता हूँ ...

वो मुझे न संभलने देगा, ये सोच कर ही अब ...
खुद के लिए खुद का ही मददगार हो जाता हूँ ...

ठोकर लगेगी मुझे बड़ी, मैं जान गया हमदम...
ग़म का तीर बन सीने के उस पार हो जाता हूँ ...

हर सांस से लिख दूँ मैं तेरे नाम फ़साने बस ...
कागज़ पे बिखर के मैं अंगार हो जाता हूँ...

तुम रोते हो हँसते हो मुझे याद बना के ही ...
हूँ खास कभी मैं, कभी बेकार हो जाता हूँ ..

आसान नहीं है यूँ मोहब्बत मे 'सिफर' होना...
होके मैं फ़ना इसमें ही, गिरफ्तार हो जाता हूँ ..

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कुनाल (सिफर) :- 17-12-2009
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1 comment:

  1. तुम रोते हो हँसते हो मुझे याद बना के ही ...
    हूँ खास कभी मैं, कभी बेकार हो जाता हूँ ..

    =बहुत उम्दा गज़ल! वाह!

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