Oct 20, 2009

ग़ज़ल:- गली आखिरी....!

शुरुवाती ख्याल के मुत्तालिक , एक मुक्तारिब बहर मैं ग़ज़ल अपनी जानिब से पेश कर रहा हूँ.. . और बस अपने दिल को यहाँ रख रहा हूँ ..


Behar hai :- mutqarib (lGaGa lGaga lGaGa lGaGa)---(In Digit:-122 122 122 122)

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ख्याल
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चलने से पहले कुछ सोचा था मैंने.... घाव हर दिल का खरोचा था मैंने... कि आखिरी सफ़र कि अब बारी है... और कुछ कांधो पे अपनी सवारी है, ... आँखें सबकी नम है,.. मेरी खुश्क सही,... हर एक फूल सीने पे बे-इन्तेहा भारी है...! काजिब हर रिश्ते कि याद को... टूटे हर अरमान के कांच को.. ज़मीन-ए-दिल पे अपने अश्कों से पोंछा था मैंने... हाँ..! चलने से पहले कुछ सोचा था मैंने ...

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ग़ज़ल
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गली आखिरी है नगर आखिरी है..
रुकी जिन्दगी का सफ़र आखिरी है..

कभी न कमाया है पलकों तले जो,,
उन अश्कों का रुख पर बसर आखिरी है ...

कहीं वो छुपे हैं इसी काफिले मैं...
मुझे देखती जो, नज़र आखिरी है ..

मेरी बेबसी थी अकेला ही चलना..
खलाओं भरी ये डगर आखिरी है..

तू रोया बड़ा है मुझे साथ पाकर..
न ग़म कर घडी ये अगर आखिरी है ..

कि खामोश रहना मेरा भीड़ भर मैं..
ये ही आज, अर्ज़-ए-हुनर आखिरी है ..

'सिफर' ही है गर हासिल-ए-दम मेरी जाँ...
खुदा की पनाह ही, शिखर आखिरी है..

हाँ ...!

हंसी आखिरी है जिगर आखिरी है..
रुकी जिन्दगी का सफ़र आखिरी है..
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कुनाल (सिफर) :- ०५-१०-२००९
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Oct 19, 2009

और वो वहम बताते रहे

हम अलग सही आज के दौर मे... पर कैसे भूलूं मैं वो राहें... चलते थे साथ कदम, चलती थी साँसें ... बताओ क्या बदला है इस जिन्दगी मे.. पहले जगते थे तेरे प्यार मे.. अब बस इंतज़ार मैं कटती है रातें,,, मिल लेता था तुझसे तब रू-बा-रू, और अब तस्वीर से होती है बातें... तभी मेरा दिल तेरे लिए आज भी धड़कता है.. तेरे नाम पे न जाने कितना तड़पता है.. कहता है जब कोई तुझे बेवफा, रोटी है आँखें, हाँ सच रोती है आँखें...

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बेवफा न वो न मैं, हम अपने करम निभाते रहे...
मैं सहता रहा सितम सारे, और वो सितम ढाते रहे...

किस बात की कहानी कहूँ, किस बात के फ़साने सुनाऊं ..
लिखता रहा नाम जो दिल पे, वो दिल से सनम मिटाते रहे...

इस गली फिर उस गली मैं, पैरों पे जुल्म करते चला..
कहता गया उन्हें मैं अपना, वो गैरों को अहम् बताते रहे..

नज़रों मैं बचे एहसास उसकी निशानी बना संभाले..
मैं रोया ग़म-ए-जुदाई पे, वो नूर-ए-चश्म* बहाते रहे...

*आँखों की चमक


प्यासी राहों से क्या पूछूँ पता दर-ए-मुहब्बत का..
रहे सँभालते काँटों पे, वो बेरहम बिछाते रहे..

आसरा उनका कहाँ खुदा भी, जो किये 'सच्चा_प्यार' यहाँ...
हम मिट गए उनकी चाहत मे, और वो वहम बताते रहे...

हाँ बेवफा वो कैसे, उसने बेवफाई से वफ़ा तो की यार..
इल्लत* मेरी भी खूब कहो, वफ़ा उनसे हरदम निभाते रहे...

मैं सहता रहा सितम सारे, और वो सितम ढाते रहे...
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कुनाल (सिफर) :- ३०-८-२००६

Oct 17, 2009

दिवाली मे घर जला रहें है ...!

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अँधेरे को अँधेरा रहने दो... डूबा हुआ सवेरा रहने दो... मुझे आदत है सन्नाटे की ... रिश्तों मे हमेशा घाटे की.. ज़रुरत नहीं मुझे रोशनी की... बस हटा दो कोई लकीरें मेरे माथे की ... चाहे खलाओं मे मेरा बसेरा रहने दो.. जो मेरा है उसे मेरा रहने दो .. डूबा हुआ सवेरा रहने दो.. अँधेरे को अँधेरा रहने दो...

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रोशनी से रोशनी का त्यौहार मना रहे है ...
जाने किसका घर है जो यार जला रहे हैं..

तमाशा है भीड़ का शहर की गलियों मैं ...
वीरानियों से घर अपना सरकार सजा रहे है...

ख़ुशी पसर गयी है मीठे के डब्बों मैं..
रुख पे अपने अश्क, हर बार बहा रहे है..

क्यूँ दे रहे हो बधाई, उनको इसकी तलब नहीं...
जेब बंद मुफलिसी* से, वो प्यार निभा रहे है...

* ग़रीबी


कुछ गिरे है टुकड़े आतिशी* मेरे आँगन मे ...
तड़प के अरमान हम, आखिरकार उड़ा रहे हैं..

* शोले


किस्सा-ए-बेवफाई है आशिकों के लब पे यहाँ...
सुरूर-ए-जाम दोस्तों से तकरार करा रहे हैं..

और...

'सिफर' हो गए धमाके, उनके आसमान मैं...
पर महफिल मैं आग, मेरे आशार* लगा रहे है..

*शायरी, अल्फाज़

रोशनी से दिवाली का त्यौहार मना रहे है,..
अपना ही घर है हम जो यार जला रहे हैं...

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कुनाल (सिफर):- १७ अक्टूबर २००९

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Oct 16, 2009

किस्मत जो बदल न पायेंगे...!





तुम हकीकत हो या ख्वाब, .. पर तुम्हे सच मान के जिंदगी जीता हूँ मैं ... की मेरे अरमानों मैं तुम्हारा अक्स है कहीं न कहीं ... जिसे मे देख सकता हूँ... छु सकता हूँ... पर पल भर मे सिमट जाता है वो कहीं... दिल रोज़ जी उठ-ता है और रोज़.........!

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बहक ना जाना की हम संभल ना पाएंगे..
तेरे आगोश मे आ के फिर निकल ना पाएंगे...

इस रात मे कर लेना दिल की हसरतें पूरी ...
गुज़र गया ये पल, फिर पिघल ना पायेंगे..

मेरी आँखों मे बह रहे मेरे जज़्बात-ए-दिल..
पढ़ लो इन्हें ज़रा ये फिर मचल ना पाएंगे ...

तेरे इंतज़ार मे तन्हाई को महफिल बताते कबसे...
रंगीनियों से अरमान अब बेहल ना पायेंगे...

अपने हश्र की फिक्र क्या करूँ मेरे खुदा...
उस कातिल को दे दी किस्मत जो बदल न पायेंगे...

जानता हूँ यही है मंजिल तेरी सच्चा_प्यार...
पर तेरी जुदाई का ज़हर हम निगल ना पायेंगे

हाँ हम संभल न पाएंगे तेरे पहलु से निकल ना पायेंगे...

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कुनाल (सिफर) ११ सितम्बर २००५...



Oct 14, 2009

'ए' हाथ छुडाने वाले....!

आज बस यूँ ही मन किया की मैं भी अपना एक आशियाना बनों .. तो बस इस तरफ चला आया... और देख मेरे खुदा ... अपने आपको मैंने खोदा है तो क्या पाया है... वही जो बस उस वक़्त जेहन मैं आया .. जब साँसों ने चलने से इनकार कर दिया था.. पर न जाने क्यूँ.. तब भी एतबार था उस अजनबी पे ... जो कभी अपना बना . और आज भी एतबार है उस पे जो अपना होके फिर अजनबी बन गया,.. मेरे खुदा बस यही इल्तेजा है मेरी .. मुझे मुझमे मरने दो ... और लफ्जों मैं ढलने दो...

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मेरा होकर भी खुद को गैर का बताने वाले...
दूर कैसे जाओगे मुझसे 'ए' हाथ छुडाने वाले..

कोई हमदम न मिलेगा तुमको हमसा यहाँ...
हम तो मिटे शौक से, अब मिलेंगे मिटाने वाले..!

किस बात का गुनाहगार बना दिया इस जान को...
नफरत यूँ मिली हमें, जुदा हुए मनाने वाले...!

हमें नहीं ग़म, न शिकायत है कोई इस सजा से ...
खुदा जाने इनमे कितने है, हम दिन बिताने वाले...!

पर है एक वादा तुझसे भी ए सितमगर हसीं
अश्क गिरेंगे तुम्हारे भी, भले हो वो दिखाने वाले...!

और..

खुश कैसे रहेगा तू, गर था तेरा 'सच्चा प्यार'..
तेरा दिल भी कटेगा, मुझ पे खंजर चलाने वाले

और सच कहो दूर कैसे जाओगे, ए हाथ छुडाने वाले...!

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कुनाल (सिफर) :- १९ जुलाई २००५