आदाब,
एक ताज़ा ग़ज़ल आप सबकी नज़र कर रहा हूँ... उम्मीद है आप अपनी आरा से ज़रूर नवाजेंगे...
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बहर:- सरी मुसद्दस मतवी मक्सूफ़ ( 2112 2112 212 )
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झूठी दुआओं मे असर कैसे हो ...
ख्वाबों की दुनिया मे बसर कैसे हो ...
बंट गयी टुकड़ों मे सनम जिंदगी...
अब कोई भी अर्ज़-ए-हुनर कैसे हो ..
सोच सियासत से भरी है यहाँ
आग इधर है जो, उधर कैसे हो ....
उनको है डर ये, जी उठूँगा मैं फिर ...
पूछ ले वो मुझसे, अगर कैसे हो ..
मेरी तरह रोते है हमदम मेरे ...
उजली हुई उनकी, नज़र कैसे हो ...
ख्यालों मे भी ख्याल यही रह गया ..
जिस्म मे ये साँसें 'सिफ़र' कैसे हो ..
दोस्त भी दुश्मन भी पीछे चल पड़े....
इससे हंसी कोई सफ़र कैसे हो ...
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कुनाल (सिफ़र) :- ०१-०८-२०१०
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