Jan 1, 2010

फर्क औकात का है....!

आदाब...

आज कल हाथ कुछ ज्यादा जुनूनी है ... एक और ताज़ा ग़ज़ल अपनी जानिब से बहर-ए-मुतकारिब सालिम मे आपकी नज़र कर रहा हूँ..
आप अपनी आरा से नवाजेंगे उम्मीद करता हूँ...

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बहर :- मुतकारिब मुसम्मन सालिम (Fa-uu-lun  Fa-uu-lun  Fa-uu-lun  Fa-uu-lun)(122  122  122  122 - In Digit)
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हैरां दिल है फिर जश्न किस बात का है ... 
जैसे ये जीवन बस इसी रात का है...

अजब शोर है राहों पे इस शहर की..
सोदा हो रहा जैसे जज़्बात का है...

है महफ़िल कहीं, कोई है गमजदा भी...
इधर से उधर, फर्क औकात का है..

गीली है ज़मीं अश्कों से आशिको के..
वो कहते है मौसम ये बरसात का है...

चला है जो अपनी ही बस्ती जलाने..
बे-बस शख्स, मुजरिम वो हालात का है...

उलझ जाते है देख कर आईना हम,...
निशाँ क्या ये रुख पर शुरुवात का है ....

'सिफर' साँसे है सीने मे टूटने को......
ये इंतज़ार बस इक मुलाक़ात का है..

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कुनाल (सिफर) :- ०२-०१-२०१०

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